जिन्दगी में यूँ सब कुछ नजर अंदाज करके मानव समाज में जी लेना तो बेहद आसान है बस करना क्या है आये है, कमाना है ,खाना है और फिर चले जाना है बस यही सामान्य लोगों की नज़र में जीवन की परिभाषा है मगर क्या इतना ही जीवन में जरूरी है और क्या यही वास्तविक जीवन है? दूसरी तरफ वह लोग है जो थोड़े से शिक्षित और जागरूक है जिनका पढ़ लिखकर जीवन में समाज के लिए यही दायित्व होता है कि शिक्षित और जागरूक लोगों की भीड़ इकट्ठी करके एक दूसरे के लिए ज्ञान परोसना है तथा ऐसे लोग उन्ही के विकास के लिए समाज कल्याण का नाम देकर समारोह आयोजित करते हैं और जीवन पर्यंत जागरूक और शिक्षित लोगों को ही शिक्षित व जागरूक करते रहते हैं यही उनकी समाज सेवा है मगर हमारे ही समाज में एक ऐसा बुद्धिजीवी वर्ग है जो यह नहीं सोचता हमने कितना पढ़ा है और कितना कमाया है अपितु वह समाज का बीड़ा अपने हाथों में लिए है समाज के ऐसे अर्जमंद महापुरुषों का यह मानना होता है कि असलियत में हमने धरातल पर किया क्या है और कितना संताप कम किया है तथा उनके द्वारा किया गया प्रयास कहाँ तक फलीभूत प्रमाणित हुआ है उनके लिए यह कहा जाए तो मुनासिब होगा कि वही इस धरती के असली हीरो में से एक है और उनका इस कमनीय धरती पर वाजिब हक है।
आज के कल्प में हमारे समाज का स्वरूप काफी तब्दील हो चुका और समाज की दिशा व दशा अंधकारमय यामिनी में घुस कर डुबकियां लगा रही है दूसरी ओर यह भी लग रहा है कि इस दौर की राजनीतिक गचर-पचर के मध्य इन्सानी सांसें ही बची है जिनका राजनीतिकरण नहीं हुआ है बाकी इन्सान तो राजनीतिक जानवर बन कर रह गया है तथा एक राजनीतिक जानवर दूसरे राजनीतिक जानवर को बछेरू की मुआफ़िक़ चरा रहा है।
इसका ताजा उदाहरण हाल ही में केन्द्र सरकार का ऑक्सीजन की कमीं से हुई मौतों को लेकर जो गैरजिम्मेदाराना बयान समाने आया है वह माना जा सकता है उससे प्रतीत हो रहा है कि सत्तासीन सरकार तो दिखावे के साथ सफेद झूठ नंगी जुबान से बोल रही है तथा इसमें पक्ष-विपक्ष के मुह जुबानी आरोप-प्रत्यारोप का ही रोल किसी को सीधे तो किसी को टीवी व मोबाईल के माध्यम से देखने मिला और इस तरह ऑक्सीजन की कमीं से हुई मौतों पर भी सियासी आहटों की चादर उढा़ दी गई ।
आज जैसे-जैसे तकनीकी का विकास होता जा रहा है वैसे ही समाज का स्वरूप काफी बदलता जा रहा है और मनोरंजन के माध्यम व तरकीबों में भी काफी तबदीली हो गयी हैं वैसे तो मनोरंजन मानव जीवन का एक अभिन्न अंग है तथा आज से नहीं बल्कि पूर्व से हम मनोरंजन के साधनों को निर्मित करते आए लेकिन इस तकनीकी से लबालब दुनियां में हम मनोरंजन की ओर ध्यातव्य होकर आदमियत को बिसारते जा रहे है विचारणीय है कि आज मनुष्य ने पशु-पक्षियों को भी मनोरंजन का साधन बना लिया है और उन पर अत्याचार भी कर रहा हैं सोशल मीडिया पर चलचित्र के माध्यम से देखने मिलता है कि बैल सीधे रास्ते से जा रहा है कोई ऐसी प्रतिक्रिया भी नहीं कर रहा जिससे किसी को हानि पहुंचे मगर लोग बैल के सींगों को पकड़कर उसे पटकने का भरसक प्रयास करते हैं तथा अपनी निरंकुश वीरता का प्रदर्शन करते हैं जिसकी उस वक्त कोई दरकार ही नहीं है कहीं देखने मिलता है कोई बंदर को बेबजह डंडे से पीट रहा है तो कोई कुत्ते पर हथियार से बार कर रहा है तो किसी गांव से खबर आती है कि वहां कुछ लोगों ने सामूहिक रूप से मोर को पत्थरों से बार करके मार डाला। ऐसे सैकड़ों पशु-पक्षियों के उदाहरण है जो आपको देखने मिल जायेगें तथा कुछ लोग तो पशु-पक्षियों को आज भी धन कमाने का माध्यम ही समझते हैं और उन्हें समाज में धन कमाने की चलती फिरती दुकान बना रखा है।
वहीं अब अमानवीय भाषा के एक पहलू का जिक्र करें तो टेलीविजन व मोबाइल पर चल-चित्रों में शब्दों की चादर से अश्लीलता कै पैर बेहर बाहर आ गये हैं क्या सचमुच समाज बदल रहा है? या फिर टेलीविजन समाज को बदल रहा है? अगर ऐसा है तो आप तसव्वुर कर लीजिए कि समाज में उस बचपन के मुस्तकबिल पर आज की भाषा कितनी प्रभावोत्पादक होगी जो अभी पैरोंं पर खड़ा नहीं हो पा रहा है मगर उसके कानों तक हर किसी के अल्फाजों की ध्वनि पहुंच रही हैं।
इस काल से ही नहीं वरन् पूर्व से ही गौरतलब यह भी रहा है कि घटनाएं व दुर्घटनाएं हमारे बस में नहीं है मगर कुछ हद तक हमारी बेफ़िक्री या लापरवाही का अस्बाब हमें जिंदगी और मौत के दरम्यान खड़ा कर देता है इस वक्त की बात करें तो इस बारिश के मौसम में हमें समाचारों में सुनने व पढ़ने तथा कहीं-कहीं तो हमें नंगी आंखों से देखने मिलता हैं कि कुएं, जलाशय, नदी जैसे आदि जलस्रोतों में मासूमों के तैरते शरीर मिलते हैं इसमें जितनी लापरवाही बच्चों की होती उससे अधिक उनके माता-पिता की होती है इसी मौसम में कहीं हम आकाशीय बिजली से मौतों की खबर सुनते हैं तो कहीं कावरियां जैसी धार्मिक यात्राओं में जान जाने की वारदातें सामने आती है जिनकी हमें पूर्व में जानकारी तो नहीं होती है लेकिन हर साल ऐसी घटनाओं से सैकड़ों लोगों की जान जाती यह पता जरूर होता है फिर भी हम अंजानों की तरह क्यों सब कुछ नजर अंदाज करके जिंदगी और मौत के मध्य मस्ती में खोकर सदा के लिए सो जाते हैं और अपनों के हाथों से निकल कर मौत के हो जाते हैं।
दूसरी ओर मानव समाज में यह त्यौहार भी हैं जिनमें खुशियों की ध्वनियों के साथ-साथ घटनाओं व खतरों की घंटियां भी सुनाई देती है। हालांकि देश में भाईचारे व अपनत्व तथा धार्मिकता को जिंदा रखने है के लिए त्यौहार प्रचीन वक्त से ही प्रचलन में है और त्यौहार आने से हमारे हृदय में उत्साह का प्रवाह तेज हो जाता है लेकिन यही त्यौहार किसी के लिए मातम का सबब भी बन जाते हैं जिसका वाजिब कारण बेपरवाही भी होता है। आने वाले त्यौहारों में रक्षाबंधन, गणेश उत्सव, दुर्गा अष्टमी, दीपावली आदि है जिनमें आपको अनेक समाचार पत्रों और टीवी में घटना व दुर्घटनाओं से मौतों की आवाज सुनाई व दिखाई देगी जिसका प्रमुख अस्बाब जानबूझकर की सुरक्षात्मक लापरवाही भी होगा।
हमारा समूचा भारतीय समाज विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों को मानने वाले लोगों का एक विशाल जनसमूह है जिसमें रक्षाबंधन, दीपावली, मकर सक्रांति, होली, ईदगाह, मीलाद उन-नबी, क्रिसमस डे, गुड फ्राइडे, बैसाखी, लोहड़ी जैसे आदि त्यौहार मनाए जाते है वैसे तो यह सभी पर्व खुशियों का दिन होते है और इनके जश्न का आलम भी भयंकर होता है तथा इन त्योहारों के जश्न में भी जानबूझकर की गई असावधानियों के चलते हैं कई लोग जान गवा देते है इसलिए हमें ना सिर्फ त्योहारों में बल्कि जीवन के हर पल में सजग रहने की बेहद दरकार है और हमारे संपूर्ण मानव समाज को असावधानियों के चलते होने वाली जान की क्षति को रफ्ता-रफ्ता कम करने के लिए प्रभावोत्पादक जागरूकता की अपरिहार्यता है। लेखक: सतीश भारतीय संपर्क सूत्र-6263197989