बाल श्रम एक ऐसा विचारणीय और अहम मुद्दा है जो गरीब, अनाथ व बेसहारा बच्चों के मुस्तकबिल पर प्रश्न चिन्ह प्रजनित करता है। हमारी दुनिया भले ही आज चांद पर पहुंच गई है पर जिन बच्चों के हाथों में चाय की केतली और बोझ की पोटली हो उनकी दुनिया आज भी इसी जमीं पर है यह उन बच्चों की बदनसीबी है या फिर गरीबी की मजबूरी है जो उन्हें बाल श्रम के लिए मजबूर कर देती है।
वर्ष 1979 में भारत सरकार ने बाल-मज़दूरी की समस्या और उससे निज़ात दिलाने हेतु लिए ‘गुरुपाद स्वामी समिति’ की स्थापना की थी और गुरुपाद स्वामी समिति’ की सिफारिशों के आधार पर बाल-मजदूरी (प्रतिबंध एवं विनियमन) अधिनियम को 1986 में लागू किया गया था इसके बावजूद भी भारत में अब तक बाल श्रम के आंकड़ों में कोई खास सुधार नहीं आया। अब भी भारत में गांव से लेकर शहरों तक आप गौर करेंगे तो कई अल्पवयस्क बच्चें ढाबों, सड़कों एवं बिल्डिंगों आदि में काम करते हुए मिल जाएंगे जो पारिवारिक आर्थिक कारणों या खुद की जरूरतों को पूरा करने के लिए काम करने लगते है। इसकी प्रमुख वजह संसाधनों का अभाव और शिक्षा की कमी है।
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार दुनियाभर में में कुल -152 मिलियन बच्चे बाल मज़दूरी करते हैं। वहीं अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ILO के मुताबिक़ दुनिया में बाल श्रम में शामिल 152 मिलियन बच्चों में से 73 मिलियन बच्चे खतरनाक काम करते हैं। इन ख़तरनाक कामों में निर्माण, कोयला खदानों, कारखानों जैसे आदि काम शामिल हैं। अगर हम 2011 की जनगणना का जिक्र करें तो इस जनगणना के मुताबिक भारत में क़रीब 43 लाख से अधिक बच्चे बाल मज़दूरी करते हुए पाए गए और यूनिसेफ की रिपोर्ट हमें यह बताती है कि दुनिया भर के कुल बाल मज़दूरों में 12 प्रतिशत की हिस्सेदारी अकेले भारत की है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत में बाल श्रम की क्या दशा है।
बाल श्रम हमारे सामने एक ऐसी चुनौती है जिसका असर ना सिर्फ हम पर बल्कि हमारी आने वाली पीढ़ी तक पर पड़ेगा। जिन बच्चों का बचपन बाल श्रम में गुजर जाए तो आप तसव्वुर कर लीजिए उनके भविष्य का क्या हाल होगा। हम कहते हैं बच्चे देश का भविष्य है लेकिन जो बच्चे बाल श्रम के आलम में गुजर- बसर कर रहे हो जिनका जीवन शैक्षिक संस्थानों की बजाय कारखानों, दुकानों, खदानों ढाबों आदि में काम करते हुए गुजर रहा हो तो वह इस देश की बाग डोर कैसे संभालेगें और इस देश को सशक्त कैसे बनाएंगे।
हमें बाल श्रम को देखते हुए उससे किनारा करने की आवश्यकता नहीं बल्कि उसके खिलाफ आवाज उठाने की दरकार है ताकि बाल दास्ताँ में जी रहे बच्चों के मुस्तकबिल की अंधेरी यामिनी पर चांदनी की मरीचि पहुँच सके।
लेखक: सतीश भारतीय