अभी देश में हिंदी सप्ताह चल रहा है |रस्म अदायगी की तरह सालों से यह आयोजन हो रहा है |रोज खबरिया चैनल और और कामेडी शो में हिंदी का चीर-हरण भी सब देखते हैं | यह देश का दुर्भाग्य है,राज भाषा से राष्ट्र भाषा की राह में राजनीति अडंगे लगा देती है |शायद ही कोई इस बात से इंकार करे कि एक राष्ट्र भाषा राष्ट्र को आसानी से एकजुट करने सबसे सशक्त माध्यम है | वैसे भी भाषा अभिव्यक्ति, दिलों को जोड़ने और ज्ञान अर्जित करने का माध्यम है। हजारों वर्षों के दौरान विश्व के अलग-अलग क्षेत्र में मनुष्य ने अनेक भाषाएं सृजित कीं। उनमें से कई अब अस्तित्व में नहीं हैं। प्रजातियों की तरह भाषाएं भी जीवित, विलुप्त होने के कगार पर और मृत की श्रेणी में विभाजित की जाती हैं। भाषाओं के विलुप्तीकरण के साथ उनमें निहित ज्ञान व संस्कृति का असीमित भंडार भी सदैव के लिए समाप्त हो जाता है\ एक सर्वेक्षण के अनुसार, विगत 50 वर्षों में 220 भारतीय भाषाएं खत्म हो गई हैं और अनुमान है कि अगले 50 वर्षों में कुछ और भाषाएं विलुप्त हो जाएंगी।
आज स्थिति यह है कि हिंदी का सही उच्चारण करने वाले, हिंदी में लिखने वाले, हिंदीके प्रकाशन-पत्रिकाओं आदि और हिंदी पुस्तकों की पाठक संख्या में भी तेजी से गिरावट आ रही है। यह धारणा बनती जा रही है कि पाठक होंगे, तभी तो पुस्तकें छपेंगी, लेकिन यह भी सही है कि जब तक पुस्तक या पत्रिकाएं नहीं होंगी, फिर पाठक कैसे होंगे? स्पष्ट है, पत्र-पत्रिकाएं और पाठक एक-दूसरे का हाथ पकड़कर ही हिंदी भाषा को जीवित रख सकते हैं। भाषा बोलने-लिखने वालों के जरिए नए-नए रूप लेती रहती है। वह रूप अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी। भाषा को अपनी जीवंतता बनाए रखने के लिए भी समय-समय पर अपना रूप बदलना पड़ता है| दुर्भाग्य से इसके लिए उदहारण अंग्रेजी से देना पड़ रहा है | ‘ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी’ में प्रत्येक वर्ष विभिन्न भाषाओं से अनेक शब्दों का समावेश किया जाता है।हालही में , सूर्य नमस्कार, नमकीन, फंडा, जुगाड़, चक्का जाम, चड्डी आदिशामिल किये गये | इसके बावजूद अंगे्रजी ने अपने मूल स्वरूप को बनाए रखा है, जबकि हिंदी के बारे में यह कहना बहुत मुश्किल है। टीवी हो या घर, विद्यालय हो या साक्षात्कार, सभी जगह एक ‘खिचड़ी’ भाषा अब चलने लगी है।
हिंदी हो कोई अन्य भाषा तभी जीवित रहेगी, जब लोग स्वयं उसे बोलेंगे और अपने बच्चों को भी उसे सिखाएंगे। जब लोग अपनी भाषा का उपयोग करने में हीन भावना नहीं, वरन गर्व महसूस करेंगे, क्योंकि भाषा का संबंध उनकी पहचान, विशिष्टता और उनके वजूद से है। यह एक निर्विवादित सच है कि हरेक मनुष्य अपने अस्तित्व की स्वीकृति चाहता है। यदि रोजगार के लिए आवश्यक है, तो अन्य भाषाएं भी सीखनी पड़ती हैं, परंतु अपनी मिट्टी, भाषा से जुड़ाव, अपने घर-परिवार में उसका इस्तेमाल ही उसे एक समृद्ध विरासत का अभिन्न अंग बनाएगा।
मात्र विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में भाषा का विषय दे देने या राजभाषा बना देने से भाषाएं जीवित नहीं रह पाएंगी। हमें इस प्रश्न का उत्तर देना है कि यह भाषा किसकी है? सरकार की, माता-पिता की, विद्यालय और शिक्षकों की, विद्यार्थियों की या हम सबकी? हममें से हर व्यक्ति को, चाहे हम सरकार में हों, पत्रकारिता में हों, स्कूल में हों या घर में हों,सामाजिक क्षेत्र में हों या व्यक्तिगत क्षेत्र में, यह उत्तर देना है कि भाषा किसकी है?
भाषा से जुडाव न होने के परिणाम अभी से दिख रहे हैं ‘हिंदी का गढ़’ कहलाने वाले उत्तर प्रदेश में करीब आठ लाख विद्यार्थी हिंदी में अनुत्तीर्ण हो गए और करीब ढाई लाख बच्चों ने हिंदी विषय की परीक्षा ही नहीं दी। उत्तर पुस्तिका में कई विद्यार्थियों ने आत्मविश्वास की जगह ‘कॉन्फिडेंस’ लिखा था| सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, जयशंकर प्रसाद, पे्रमचंद, महादेवी वर्मा, मैथिलीशरण गुप्त आदि के नाम तो पुस्तकालय तक सीमित रह गये हैं |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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