कोरोना के कारण सबसे ज्यादा लाभ बाज़ार को मिला है। सरकार और जनता दोनों से बाज़ार ने लाभ उठाया है।बाज़ार ने इस बात की परवाह नहीं की उसके इस कदम का का क्या लाभ है और क्या हानि बाज़ार ने सिर्फ अपना हित देखा। देश में ‘वेंटीलेटर निर्माण’ एक ऐसी ही कहानी है जिसमे बाज़ार ने सरकार को तो चूना लगाया सस्ते उत्पाद के नाम पर जो वेंटीलेटर बनाये उन्हें अंत में कबाड़ में जाना पड़ा। मई के मध्य में सरकार ने 'मेड इन इंडिया' वेंटिलेटर के लिए पीएम केयर्स फंड से 2000 करोड़ रुपये आवंटित किए थे।
महामारी से प्रभावित देश में जीवन रक्षक प्रणाली बनाने में आत्मनिर्भर बनने की पहल, देश की मेक इन इंडिया परियोजना की सबसे बड़ी सफलता हो सकती थी, लेकिन अब यह सफलता कई विवादों में घिर गई है। वेंटिलेटर की कम लागत विशेषकर छोटे अस्पतालों के लिए एक वरदान थी, लेकिन गुणवत्ता एवं सुरक्षा के सवाल ने स्थानीय स्तर पर निर्मित वेंटिलेटर के उपयोग पर गंभीर चिंताएं जताई हैं। मुंबई के जेजे अस्पताल एवं सेंट जॉर्ज अस्पताल आदि अस्पतालों से करीब 100 वेंटिलेटर लौटाए गए और कहा गया कि ये वेंटिलेटर कोरोना के गंभीर रोगियों के लिए ऑक्सीजन के स्तर को आवश्यक मानकों तक बढ़ाने में असफल रहे।
यूँ तो ये वेंटिलेटर मारुति सुजूकी के सहयोग से एक स्टार्टअप ऐगवा द्वारा बनाए गए थे। उजाला सिग्नस हेल्थकेयर ने ऐगवा के कुछ वेंटिलेटर को मान्य किया था और कंपनी को सुधार के लिए जरूरी प्रतिक्रिया दी थी। उन्होंने पाया कि ये वेंटिलेटर घरेलू उपयोग, ऐंबुलेंस और कम गंभीर रोगियों के लिए बेहतर हैं लेकिन गंभीर मरीजों के लिए इसमें कुछ सुधार करने की आवश्यकता है।
ऐगवा वेंटिलेटर के बेसिक मॉडल की कीमत करीब 1.5 लाख रुपये थी। इसकी तुलना में एक आयातित वेंटिलेटर की कीमत लगभग 10-15 लाख रुपये होती है। विशेषज्ञों का कहना है कि गंभीर रोगियों के लिए ऐगवा वेंटिलेटर पर्याप्त नहीं हो सकते लेकिन उनका उपयोग कम गंभीर रोगियों के लिए किया जा सकता है। देश में जब कोरोना के मरीजों की संख्या में तेजी आनी शुरू हुई तो यहां वेंटिलेटर बनाने की कुल क्षमता मार्च में 300 वेंटिलेटर के मुकाबले एक माह में बढ़कर 30000 इकाई हो गई। लेकिन गुणवत्ता में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ।
अब कोरोना रोगियों में से बहुत कम को वेंटिलेटर की आवश्यकता है, इसलिए सरकार ने अब और वेंटिलेटर खरीदने बंद कर दिए हैं। वेंटिलेटर निर्माण के लिए निजी क्षेत्र में भी बहुत सी अतिरिक्त क्षमता उपलब्ध है। डॉक्टर कोरोना मरीजों के इलाज के लिए ऑक्सीजन मास्क तथा उच्च सीमा तक ऑक्सीजन प्रवाह वाले वेंटिलेटर का उपयोग कर रहे हैं। हालांकि इस बात की संभावना बहुत कम है कि वेंटिलेटर की मांग जल्द ही बढ़ेगी लेकिन चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े लोगों का कहना है कि युद्धस्तर पर स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे में वृद्धि होना महामारी का एक सकारात्मक पक्ष रहा। भारत की मांग पूरी होने के साथ ही निर्माता उम्मीद कर रहे हैं कि उन्हें निर्यात की अनुमति दी जाएगी। पीपीई एवं मास्क के विपरीत, इन उन्नत मशीनों के लिए निरंतर मांग नहीं रहती है। इसलिए, पिछले दो महीनों में क्षमता निर्माण करने वाले स्थानीय निर्माताओं द्वारा अब अंतरराष्ट्रीय बाजारों में जाने की अनुमति की मांग हो रही है।
चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े पेशेवरों का कहना है कि मरीजों का विवरण दर्ज करने वाले एक लैपटॉप से लेकर ग्लूकोमीटर, थर्मामीटर, अल्ट्रासाउंड मशीनें सहित अस्पतालों में उपयोग किए जाने वाले अधिकांश उपकरण भारत में नहीं बनाए जाते हैं जिससे ये उत्पाद काफी महंगे होते हैं। कोरोना से पहले देश में केवल 10000 वेंटिलेटर की मांग होती थी और घरेलू बाजार होते हुए भी इनमें से 9000 वेंटिलेटर बाहर से आयात किए जाते थे। इस कहानी में एक और झोल है ऑर्डर देने के बाद सरकार द्वारा विशिष्टताओं तथा मानकों में बदलाव और सरकार द्वारा पर्याप्त प्रशिक्षण न देना। इस सब ने वेंटीलेटर की कहानी को वेंटीलेटर पर पहुंचा दिया है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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